जोशीमठ के वर्तमान हालात को समझने के लिए 70 के दशक की दो महत्वपूर्ण घटनाओं को जानना होगा। यह दोनों ही जोशीमठ के वर्तमान घटनाक्रम की तस्वीर साफ करती है। इनमें से एक हिमालय क्षेत्र के पर्यावरण संरक्षण को लेकर गौरा देवी के नेतृत्व में चिपको आंदोलन की शुरुआत तो दूसरी जोशीमठ तत्कालीन भौगोलिक संरचना को लेकर गढवाल मंडल कमीश्नर महेश चंद्र मिश्रा की रिपोर्ट।
जोशीमठ के वर्तमान हालात के आलोक में इन दोनों ही घटनाक्रमों को समझना और जानना बेहद जरूरी है । वर्ष 1976 में भारत तिब्बत सीमा से सटे हुए रैणी गांव की गौरा देवी ने अपनी महिला सहयोगियों के साथ अपने वनों की रक्षा और परंपरागत अधिकार को लेकर एक अभिनव पहल की थी। रैणी के जंगलों में अवैध कटान के विरोध में गौरा देवी और उनकी सहयोगी हरे भरे पेड़ों से चिपक गई और यहीं से चिपको आंदोलन का प्रादुर्भाव हो गया। दरअसल गौरा देवी का यह आंदोलन अपने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और उनके पूर्वजों के इन पर पारंपरिक अधिकार को लेकर थी । यह एक पहलू है।
वर्ष 1976 में उत्तर प्रदेश शासन के तब के गढवाल मंडल कमीश्नर महेश चंद्र मिश्रा ने जोशीमठ की भौगोलिक संरचना और स्थितियों को लेकर एक रिपोर्ट प्रेषित की थी। जिसमें उन्होंने जोशीमठ और उसके आसपास के क्षेत्रों में बड़े स्तर के निर्माण कार्यों पर रोक की बात कही थी।
मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट में इस बात का साफ उल्लेख किया गया था कि प्राकृतिक संसाधनों खासतौर से जंगल को नुकसान पहुंचा दिया गया है। पहाड़ी ढलान पेड़ विहीन होने के चलते खतरे की जद में हैं। यहां भूस्खलन हो रहा है। इसको रोकने के उचित प्रबंध किए जाने की बात मिश्रा कमेटी ने आज से 47 वर्ष पहले ही अपनी रिपोर्ट में बता दी थी।
इस रिपोर्ट में जोशीमठ में नियंत्रित निर्माण मानकों के अनुसार ही निर्माण कार्यों की स्वीकृति जाने का जिक्र किया था। वर्ष 1991 में जब हेंलंग मारवाड़ी बाईपास के निर्माण को मंजूरी दी गई। उस समय यहां के प्रबुद्ध लोगों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वाद दायर किया और महेश मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर उच्च न्यायालय ने हेलंग मारवाड़ी बाईपास के निर्माण पर स्टे दिया।
जोशीमठ समुद्र की गहराई से साडे 6000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है वर्तमान में इस शहर की आबादी 20000 से अधिक है। इसके शीर्ष पर औली और गोरसों बुग्याल है।
जोशीमठ में भूधंसाव की घटना अचानक नहीं हुई। धार्मिक पौराणिक ऐतिहासिक एवं नैसर्गिक सौंदर्य से भरपूर इस पहाड़ी नगर को बर्बाद करने की पटकथा बहुत पहले ही लिखी जा चुकी थी।
इस संवेदनशील मध्य हिमालय क्षेत्र में आखिर क्यों बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण को मंजूरी दी गई । पहले अलकनंदा नदी का विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना का निर्माण किया गया उसके बाद अलकनंदा की एक सहायक नदी धौली गंगा पार ऋषि गंगा प्रोजेक्ट और इसी घाटी में तपोवन विष्णुगढ़ जल विद्युत परियोजना के निर्माण को हरी झंडी दी गई।
इसके अलावा राष्ट्रीय राजमार्ग के निर्माण में प्रयोग किए गए भारी विस्फोटक भी इस तबाही के कारणों में एक हैं। हालांकि नगर में क्षमता से अधिक अनियोजित निर्माण भी के लिए कम जिम्मेदार नहीं है । लेकिन बड़ा सवाल यह है की आंखिर सरकारी मशीनरी आंखें मूंदे क्यों इंतजार करती रही।
एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि मकानों के दरकने का सिलसिला नवंबर 2021 में शुरू हो गया था। तो आखिर शासन-प्रशासन इस तबाही का इंतजार क्यों करता रहा। क्यों नहीं स्थानीय लोगों और सड़कों पर संघर्ष कर रहे आंदोलनकारियों की बात को गंभीरता से लिया गया। यदि समय रहते इन सब पहलुओं पर गंभीरतापूर्वक ध्यान दिया जाता तो शायद इस आपदा को नियंत्रित किया जा सकता था।
डॉ. बृजेश सती/मीडिया प्रभारी ज्योतिर्मठ