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दिल्ली के नतीजे, देश में संकेत.....

दिल्ली के नतीजे, देश में संकेत.....

 

प्रदीप डबास, कार्यकारी संपादक, जनता टीवी

अरविंद केजरीवाल अपनी जीत को लेकर पूरी तरह भरोसे में थे लेकिन इतना प्रचंड बहुमत मिलने जा रहा है इसका शायद उन्हें भी अंजादा नहीं रहा होगा। यहां तककि दिल्ली का मतदाता भी मानकर चल रहा था कि सरकार तो ‘आप’ की बन सकती है लेकिन इस बार सीटें कम होंगी। भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली में चुनाव भी पूरी मेहनत के साथ लड़ा था। लड़ना जरूरी भी था क्योंकि दिल्ली का संदेश पूरे देश में जाता है। बिहार, पश्चिम बंगाल और पंजाब के चुनाव सिर पर खड़े हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और उससे पहले पंजाब में बीजेपी सत्ता से बाहर हो चुकी है। हरियाणा में बहुमत नहीं मिला तो जननायक जनता पार्टी के साथ समझौता करना पड़ा। सवाल बड़ा है कि इन सभी राज्यों में लोकसभा चुनावों के दौरान बीजेपी ने लगभग तमाम सीटें जीती थीं लेकिन कुछ ही महीनों बाद जब इन राज्यों में विधानसभा चुनाव होते हैं तो पार्टी को हार का सामना क्यों करना पड़ता है? क्या इन राज्यों में पार्टी के संगठन में किसी तरह की कोई दिक्कत है? मतदाताओं के साथ संवाद स्थापित करने में नाकामी क्यों हो रही है? क्या पार्टी आलाकमान को स्थानीय मुद्दों और लोगों की समस्याओं से अवगत नहीं करवाया जाता? क्या केंद्र की योजनाएं ठीक से लोगों तक पहुंच नहीं पा रही हैं या कोई और भी कारण हैं इस तरह की लगातार हार का। दिल्ली में बीजेपी की ओर से चुनाव की कमान इस बार अमित शाह ने खुद संभाल रखी थी। पार्टी का हर बड़ा नेता लोगों के बीच में मौजूद था, चार-चार राज्यों के मुख्यमंत्री प्रचार में लगे हुए थे, फिर ऐसा क्या हुआ कि दिल्ली में बीजेपी दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाई।

अगर सवाल यह किया जाए कि बीजेपी दिल्ली की जनता का मूड नहीं भांप पाई तो जवाब हां में ही होगा। अरविंद केजरीवाल के फ्री पैकेज की काट बीजेपी खोज नहीं पाई। इसके अलावा आम आदमी पार्टी पिछले छह महीने से लगातार चुनावी मूड में थी, जबकि बीजेपी की प्रदेश इकाई की ओर से चुनाव लड़ना शुरू किया गया तारीखों के एलान के बाद। इसके अलावा आम आदमी पार्टी की ओर से लगातार इस रणनीति पर कायम रहना कि प्रधानमंत्री पर किसी तरह का कोई व्यक्तिगत हमला न हो उनके लिए लाभ का कारण बना। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने सीधे तौर पर प्रधानमंत्री को लेकर डंडे से मारने वाला बयान दिया तो उस बयान को संसद से सड़क तक बीजेपी ने पुरजोर तरीके से उठाया लेकिन पार्टी ये भूल गई इस तरह दिल्ली के दंगल की दिशा कांग्रेस वर्सेज बीजेपी बनती चली गई और केजरीवाल जानबूझकर चुप रहे। कहीं ना कहीं ये भी मानकर चला जा सकता है कि बीजेपी की ओर से मुख्यमंत्री के नाम के घोषणा नहीं करने की रणनीति भी बैक फॉयर कर गई। केजरीवाल ने इसे भी अपने भाषणों में शामिल किया। दिल्ली का मतदाता भी असमंजश की स्थिति में था कि किसका चेहरा देखकर वोट दी जाए। हां शाहीनबाग का फायदा बीजेपी और आम आदमी पार्टी दोनों को हुआ। बीजेपी और आप दोनों ही चाहते थे कि शाहीनबाग का धरना कम से कम चुनाव तक तो खत्म ना ही हो तो अच्छा है। बीजेपी हिंदू मतदाताओं के ध्रुविकरण में काफी हद तक कामयाब रही। उसकी सीटें तो सिर्फ पांच बढ़कर तीन से आठ हुईं लेकिन पार्टी का वोट प्रतिशत 2015 के मुकाबले सुधरा। उधर अरविंद भी जानते थे कि शाहीनबाग की वजह से मुस्लिम वोट सीधे उनकी झोली में आने वाले थे।

खैर ये सभी कारण तो सिर्फ दिल्ली चुनाव तक के थे, सभी पार्टियां अपनी-अपनी जीत और हार के कारणों की समीक्षा करती हैं बीजेपी भी करेगी, लेकिन बीजेपी के लिए जरूरी हो गया है कि समीक्षा सिर्फ दिल्ली की हार तक सीमित नहीं रखते हुए अन्य राज्यों में होने वाले चुनाव के मद्देनजर की जाए, क्योंकि इन तमाम राज्यों में उसे या तो वहां मौजूद क्षेत्रिय दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ना है या फिर दिल्ली की तरह बीजेपी का सीधा मुकाबला ही इन दलों के साथ होगा। पश्चिम बंगाल में ममता दीदी से पार पानी है। पार्टी को वहां के संगठन को इस तरह तैयार करना होगा कि मतदाताओं को लगे कि बीजेपी राष्ट्रीय मुद्दों की बजाए उनके हकों की बात कर रही है। बिहार में हालांकि नीतिश कुमार की अगुवाई में चुनाव लड़ने की घोषणा खुद अमित शाह कर चुके हैं लेकिन एनआरसी और प्रशांत किशोर जैसे मसलों को लेकर बीजेपी नीतिश कुमार के तेवर भी देख चुकी है। इधर पंजाब में भाजपा के पुराने साथी अकाली दल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान ही एक बार तो पार्टी को झटका दे ही दिया था। इसके अलावा वहां आम आदमी पार्टी का वजूद भी कायम है। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान उसका प्रदर्शन और अब दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत पंजाब में फिलहाल सत्ता से बाहर बीजेपी-अकाली दल गठबंधन के लिए फिर से मुश्किलें खड़ी कर सकती है।

इसकी एक वजह ये भी है कि लोकसभा चुनावों के बाद से कांग्रेस मानो इस वक्त पूरी तह आईसीयू में है उसके फिर जिंदा होने में अभी वक्त भी लग सकता है। ऐसे में इन राज्यों में क्षेत्रिय दलों के साथ ही मैदान में उतरना और उन्हीं के साथ दो-दो हाथ करने का मतलब है बीजेपी को ग्राउंड लेवल पर जाकर फिर से मेहनत और संगठन को और मजबूत करने की जरूरत है, क्योंकि पार्टी को अब ये समझ लेना होगा कि देश का चुनाव भले ही राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय मुद्दों पर जीता जा सकता है लेकिन राज्यों में तो ध्यान इस बात का रखना होगा कि उस प्रदेश का मतदाता आखिर चाहता क्या है।


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